Monday, November 22, 2010

अयोध्या मामले का अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू

 rajendra singh chouhan advocate
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दुनिया के ऐसे बहुत कम संविधान होंगे जिन्होंने अपने सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण को इस तरह की परामर्श दात्री भूमिका प्रदान की होगी जैसेकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान की हुई है।

अनुच्छेद 143(1) के अनुसार:

यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो वह उस प्रश्न को विचार करने के लिए उस न्यायालय को निर्देशित कर सकेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात् जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित कर सकेगा।

संविधान के लागू होने के 60 वर्षों में, अब तक केन्द्र सरकार ने ऐसे लगभग एक दर्जन मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगी है। सामान्य रुप से कानून के कुछ मामलों पर।

लेकिन 1993 में सर्वोच्च न्यायालय से अयोध्या मामले से जुड़े एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य पर राय ली गई।

यह प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय को यह विशेषाधिकार देता है कि यदि वह चाहे तो अपना अभिमत देने से इंकार कर सकता है। इस केस में वास्तव में उसने इंकार ही किया।

लेकिन इस प्रक्रिया में यह स्पष्ट हो गया कि सरकार इस विवाद में किस पहलू को अत्यंत महत्वपूर्ण मानती है।

तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गए संदर्भ का मुख्य भाग प्रस्तावना के बाद इन दो अनुच्छेदों में निम्न है:

अब, अत: भारत के संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत प्रदत्त शक्तियों को उपयोग करते हुए मैं, शंकर दयाल शर्मा, भारत का राष्ट्रपति यह निम्न प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के विचारार्थ और उसके अभिमत के लिए संदर्भित करता हूं:

क्या जिस क्षेत्र में ढांचा खड़ा है वहां रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद (इस ढांचे के अंदर और बाहर आंगन सहित) निर्माण से पूर्व कोई हिन्दू मंदिर या अन्य हिन्दू धार्मिक ढांचा मौजूद था?                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

जैसाकि ऊपर इंगित किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ का उत्तर देने से इंकार कर दिया। लेकिन इसने अपने निर्णय में यह दर्ज किया कि न्यायालय ने सोलिसीटर जनरल को इस संदर्भ में केन्द्र सरकार से इस पर उसकी स्थिति का निर्देश लेने और उसे लिखित में दर्ज करनेकहा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा: ”14 सितम्बर, 1994 को विद्वान सोलिसीटर जनरल ने उत्तर में निम्नलिखित वक्तव्य दिया:

सरकार, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भित तथ्य के प्रश्न पर दिए गए अभिमत को निर्णय मानकर इसे अंतिम और बाध्यकारी मानेगी।

सर्वोच्च न्यायालय के अभिमत के परिप्रेक्ष्य में और उसके तद्नुरुप सरकार विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत की प्रक्रिया हेतु प्रयास करेगी। सरकार आश्वस्त है कि सर्वोच्च न्यायालय का अभिमत समुदायों के रुख पर अनुकरणीय प्रभाव डालेगा और वे इस तथ्यात्मक मुद्दे जिसका सर्वोच्च न्यायालय ने निराकरण किया है, पर परस्पर विरोधी रुख ज्यादा समय तक नहीं रख पांएगे।

यदि उपरोक्त वर्णित बातचीत से समाधान निकलना सफल नहीं होता, तो सरकार, सर्वोच्च न्यायालय के अभिमत के परिप्रेक्ष्य में और तद्नुरूप समाधान निकालने के लिए प्रतिबध्द है, इस सम्बन्ध में सरकार का कदम दोनों समुदायों के प्रति समान होगा। यदि संदर्भित प्रश्न का उत्तर हां में होता है कि ढह गए ढांचे के निर्माण के पूर्व एक हिन्दू मंदिर ढांचा मौजूद था तो सरकार की कार्रवाई हिन्दू समुदाय की इच्छाओं के समर्थन में होगी। यदि दूसरी तरफ, प्रश्न का उत्तर ना में आता है यानी कि प्रासंगिक समय पर कोई हिन्दू मंदिर मौजूद नहीं था तो सरकार की कार्रवाई मुस्लिम समुदाय की इच्छाओं के समर्थन में होगी

जहां तक उच्च न्यायालय के निर्णय का सम्बन्ध है उसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) की रिपोर्ट का निर्णायक भूमिका है। काफी परिश्रम से तैयार यह रिपोर्ट उच्च न्यायालय के स्वयं के निर्देशों पर प्रस्तुत की गई।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गए संदर्भ का संज्ञान लिया और महसूस किया कि केन्द्रीय सरकार द्वारा पूछे गए प्रश्न का विश्लेषण करने के लिए ए.एस.आई. से अनुरोध करना उपयुक्त होगा - सर्वप्रथम ग्राउण्ड पैनेटरेटिंग राडार सर्वे और तत्पश्चात् उत्खनन से।

ग्राउण्ड पैनेटरेटिंग राडार सर्वे में कुछ असंगतियां पाई गर्इं। इसलिए उच्च न्यायालय ने ए.एस.आई. से उत्खनन करने को कहा।

ए.एस.आई. ने अपनी रिपोर्ट के अंतिम अध्याय में कहा है:

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की गई। इस अवधि के दौरान, सम्मानीय लखनऊ उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार 82 गङ्ढों की खुदाई की गई ताकि खुदाई से पूर्व ग्राऊण्ड पैनेटरेटिंग राडार सर्वे द्वारा इस स्थान पर की गई कार्रवाई पर आधारित रिपोर्ट में वर्णित  विसंगतियों को जांचा जा सके। कुल मिलाकर 82 गङ्ढों और उनके साथ कुछ शहतार असंगतियों और असंगत पंक्तियों को पड़ताल की गई। खम्भों के आधारों, ढाचों, फर्शों और नींव के रूप में इन गङ्ढों  में असंगतियों की पुष्टि हुई यद्यपि ऐसे कुछ अवशेष अपेक्षित गहराई और स्थानों के नहीं पाए गए। इन 82 गङ्ढों के अलावा कुछ और मिलाकर जो अंतत: 90 बने की भी माननीय उच्च न्यायालय द्वारा ढांचे की पुष्टि के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, खुदाई की गई

अपनी रिपोर्ट के अंत में ए.एस.आई. ने निष्कर्ष दिया है:

समग्रता में विचार करते हुए और विवादास्पद ढांचे के ठीक नीचे मौजूद भव्य ढांचे के पुरातत्वीय साक्ष्य को ध्यान में लेते हुए और दसवीं शताब्दी से लेकर चरणों में विवादास्पद ढांचे के निर्माण तक, उसके साथ पत्थर प्राप्त होने और सजावटी ईंटों के उपलब्ध होने के साथ-साथ जीर्णावस्था में दिव्य वाहन (बग्घी) मूर्ति और नक्काशीदार वास्तुशिल्पीय वस्तुएं जिसमें पत्तियों के गुच्छे के पैटर्न, शिखर का ऊपरी भाग, कपोलापाली, द्वारों के साथ अर्ध्द-गोलाकार भित्ति स्तम्भ, काले शीफ्ट पत्थर के स्तम्भों के टूटे-फूटे अष्टभुजाकार छड़, कमल की आकृति, उत्तर में परनाला सहित गोलाकार पुण्यस्थल, विशाल ढांचे के साथ जुड़े हुए आधार पचास स्तम्भ - उन पुरावशेषों के संकेतक हैं जो उत्तर भारत के मंदिरों से जुड़े होने वाले विशिष्ट वैशिष्टय के रूप में पाए जाते हैं



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